Here is the second part of this poem. This part is some how sad one, specifically more nervous and disturbed. Intention is negative, yet it might sooth at some point of time. Those who wished to go according to the title of this blog, for them I'm really sorry, although I tried to have a new taste this time. [;)]
कभी सोचते हैं हो कुछ नया इस ज़िन्दगी में
और कभी बस यूँ ही जिये जाने को जी चाहता है
कभी सागर की लहरों से भी डरता नहीं दिल
कभी उन्हीं लहरों में समा जाने को जी चाहत है
कभी लगते हैं अपने बेगाने से
कभी बेगानों को भी अपना बनाने को जी चहता है
कभी शर्म नहीं आती गैरों से भी
कभी यूं ही शर्माने को जी चाहता है
कभी मिलता नहीं किसी के लाख कहने पर भी ये दिल
कभी किसी अंजाने से मिल जाने को दिल चाहता है
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